देवो का सान्निध्य पाने को पवित्र बनें हिन्दू-परमाराध्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती १००८
देवो का सान्निध्य पाने को पवित्र बनें हिन्दू-परमाराध्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती १००८
सं. २०८१ माघ कृष्ण नवमी तदनुसार दिनाङ्क 23 जनवरी 2025 ई
पवित्र शब्द पवि और त्र से मिलकर बना है। पवि का अर्थ है वज्र और त्र का अर्थ है रक्षा। व्रज का प्रहार निष्फल होता है। देवता कोप से बचने के लिए प्रत्येक सनातनी को पवित्र रहना चाहिए सनातनी अपनी पवित्रता नहीं खोना चाहते। देव संस्कृति के लोग पवित्रता को अपना रक्षाकवच मानते हैं। पवित्रता से ही हम देवताओं का सान्निध्य पा सकते हैं और हमारी संस्कृति में गाय सबसे पवित्रतम् है।
उक्त बातें परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्री: अविमुक्तेश्वरानन्द: सरस्वती १००८ ने आज पवित्रता कितनी जरूरी? उपाय विषय पर विचार व्यक्त करते हुए कही।
उन्होंने कहा कि किसी भी वस्तु के तीन स्तर होते हैं, जिन्हें आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक कहकर सम्बोधित किया जाता है। इन्हीं तीन स्तरों पर वस्तु शुद्ध अथवा अशुद्ध भी होती है। मल, दोष और पाप इसके कारण बनते हैं। जो वस्तु निर्मल-निर्दोष और निष्पाप भी हो वही पवित्र शब्द से सम्बोधित की जाती है। देवता इसी पवित्र वस्तु का उपभोग करते हैं। इसीलिए देव संस्कृति को अपना मानने वाले हम सनातनी भी स्वयं को दैहिक, वाचिक और वैचारिक आदि हर एक स्तरों पर स्वयं को पवित्र बनाये रखना चाहते हैं।
किसी भी देव अथवा पितृकार्य में हम “अपवित्रः पवित्रो वा” मन्त्र को पढ़कर स्वयं पर जल छिड़कते दिखायी देते हैं क्योंकि हम पवित्र रहकर ही स्वयं को देवों की उपासना के योग्य बना सकते हैं। भगवद्स्मरण, भवन्नामोच्चारण, भगवल्लीला चिन्तन हमें पवित्र बनाते हैं। क्योंकि वे परम पवित्र हैं और अपावन को भी पावन बना देते हैं।
आगे कहा कि दैवी कृपा प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले हर हिन्दू परम धार्मिक को अपना ख़ान-पान, स्नान-ध्यान, बात-व्यवहार पवित्र रखने की सतर्क चेष्टा बनाये रखनी चाहिए। अपवित्रता हमें दैवी सान्निध्य से दूर करती है। इसलिए इससे बचने का सर्वथा प्रयास करना चाहिये। पवित्रम् प्रमाणीकरण को स्थापित करने की दिशा में भी हमें विचार करना होगा।
आज विषय विशेषज्ञ के रूप में रितु त्रिपाठी जी ने अपने व्याख्यान प्रस्तुत किए। चर्चा में अरविंद भारद्वाज जी, संजय मिश्र जी, सुभाष मल्होत्रा जी, सुनील कुमार शुक्ल जी, अनुसुईया प्रसाद उनियाल जी, संजय जैन जी, बिसन दत्त शर्मा जी, कुलदीप शुक्ल जी, साध्वी सोनी जी, दिनेश चन्द्र जी, उमाकान्त पाण्डेय जी आदि ने भाग लिया। प्रकर धर्माधीश के रूप में श्री देवेन्द्र पाण्डेय जी ने संसद् का सञ्चालन किया। सदन का शुभारम्भ जायोद्घोष से हुआ। अन्त में परमाराध्य ने धर्मादेश जारी किया जिसे सभी ने हर-हर महादेव का उद्घोष कर पारित किया।
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