
नई दिल्ली, 5 सितंबर: खुदाई के दौरान अचानक मिटटी टीला ढहने के चलते घायल श्रमिक रिम्मी (25 वर्ष) की रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई, जिससे वह लकवाग्रस्त हो गई। ससुराल वाले उसे दिल्ली ले आए मगर रिम्मी के स्थायी विकलांग होने की जानकारी मिलने के बाद उसे अस्पताल में ही छोड़कर चले गए। यही नहीं 4 हफ्ते बाद तलाकनामा भी भेज दिया।
एक अन्य मामले में उत्तर प्रदेश के बस्ती में रहने वाली, 56 वर्षीय सरोज जब अपनी छत पर अनाज सुखा रही थीं, तभी लड़खड़ा कर गिर पड़ीं। गिरने से उनकी रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई, जिससे उनके चारों अंग लकवाग्रस्त हो गए। अपनी स्थायी विकलांगता के कारण उन्हें जीवन भर व्हीलचेयर पर रहना पड़ा। दरअसल, देश में हर साल रीढ़ की हड्डी की चोटों के 20,000 से ज्यादा नए मामले सामने आते हैं, जहां अनुमानित 15 लाख लोग पहले से ही इनसे ग्रस्त हैं। जयपुर के एक अस्पताल के अध्ययन के अनुसार, 53% मामले गिरने के कारण होते हैं, जबकि 28% मामले यातायात दुर्घटनाओं के कारण होते हैं।
सफदरजंग अस्पताल के पीएमआर विभाग की प्रोफेसर सुमन बधाल ने कहा, हम अक्सर देखते हैं कि जब रीढ़ की हड्डी की चोट से पीड़ित महिला के परिजनों (विशेषकर ससुरालजन) को पता चलता है कि वह अब ना सामान्य रुप से चल -फिर सकेगी और ना ही शारीरिक श्रम कर सकेगी। तब वह उसे अस्पताल में ही छोड़कर चले जाते हैं। उसे त्याग देते हैं। ऐसी स्थिति में उसे अपने माता-पिता से ही सहारा मिल जाता है। लेकिन ससुराल पक्ष के लोग और बेटा-बहू पीड़िता से मुंह फेर लेते हैं। कुछ मामलों में बेटी अगर युवा होती है तो वह जरूर अपनी मां की देखभाल करती है।
डॉ. सुमन के मुताबिक रिम्मी और सरोज की कहानी हमें याद दिलाती है कि मानव शरीर कितना नाजुक हो सकता है, खासकर महिलाओं के लिए, और एक बार गिरने से कितना नुकसान हो सकता है। कई मामलों में वह मूत्राशय या आंत्र पर नियंत्रण भी खो देती है। इस स्थिति में महिला संभ्रांत या रोजगार शुदा होती है तो वह अपना जीवन यापन आसानी से कर पाती है और परिजन भी अपना लेते हैं। हालांकि रीढ़ की चोट से पुरुष भी पीड़ित होते हैं लेकिन पत्नी और अन्य परिजन उनका त्याग नहीं करते। पत्नी उसकी देखभाल करती है, साथ निभाती है और उसे छोड़ती नहीं है।
रीढ़ की चोट से गतिहीन हो जाती है पीड़िता
जब महिलाएं रीढ़ की चोट के चलते गतिहीन हो जाती हैं, तो वे अपनी आय और घरेलू योगदान खो देती हैं क्योंकि उन्हें अक्सर अनौपचारिक या अवैतनिक घरेलू कामों में शामिल होना पड़ता है। परिणामस्वरूप उनकी भेद्यता, अपराधबोध और निर्भरता बढ़ जाती है। उन्हें रोजमर्रा के कामों जैसे खाने, नहाने, बिस्तर पर करवटें बदलने और व्हीलचेयर पर बैठने में अक्सर मदद की जरूरत पड़ती है। स्वच्छता सुविधाओं की कमी, खासकर ग्रामीण इलाकों में, और लिंग-संवेदनशील पुनर्वास सेवाओं का अभाव, स्वास्थ्य लाभ में और बाधा डालता है।
शारीरिक ही नहीं आर्थिक पुनर्वास भी जरुरी
रीढ़ की हड्डी की चोट एक चिकित्सीय स्थिति के अलावा एक जैव-मनोवैज्ञानिक चुनौती भी है। विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 के बावजूद, बुनियादी ढांचे, शिक्षा, रोजगार और परिवहन की पहुंच अभी भी अपर्याप्त है। परिणामस्वरूप, रीढ़ की हड्डी की चोटों से पीड़ित महिलाएं अक्सर समाज में हाशिए पर रहती हैं। सेवाओं का दायरा शहरी अस्पतालों से आगे बढ़ना चाहिए। पुनर्वास का एकमात्र लक्ष्य शारीरिक स्वास्थ्य लाभ नहीं होना चाहिए। कौशल भारत मिशन और दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। ताकि वह स्वरोजगार प्राप्त कर सके।
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