नई दिल्ली, 29 अक्तूबर : तमाम प्रतिबंध, प्रदूषण और चोट लगने की चेतावनी के बावजूद दिवाली पर बेतहाशा आतिशबाजी होने के चलते साफ हो गया कि कुछ भी कर लो, मगर पटाखों के शौकीन लोग, पटाखों से जरूर खेलेंगे। लिहाजा सरकार को एक यूनिवर्सल पॉलिसी बनानी चाहिए जिससे पटाखे फोड़ने के बावजूद लोग सुरक्षित रहें।
यह बातें एम्स दिल्ली के डॉ. राजेंद्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र की प्रमुख डॉक्टर राधिका टंडन ने बुधवार को कहीं। उन्होंने बताया कि दिवाली के दिन 110 मरीज बम-पटाखों से चोटिल आंखों का इलाज कराने आरपी सेंटर पहुंचे थे। अगले दिन ऐसे ही 80 अन्य मरीज पहुंचे। कुल 190 मरीजों में से 60 मरीजों की आंखों में कार्बाइड गन, केमिकल और पटाखों से गंभीर चोट पहुंची थी जिनकी तत्काल सर्जरी करनी पड़ी। घायलों में 7 साल के बच्चे से लेकर 33 साल तक के वयस्क शामिल हैं।
आंखों की सर्जरी के बाद कुछ लोगों की आंशिक रोशनी वापस आ गई है। जबकि गंभीर रूप से चोटिल करीब 10 लोगों की आंख हमेशा के लिए खराब हो गईं है। वहीं, अन्य मरीजों की आंखों की पूर्ण रोशनी लंबे इलाज के बाद वापस आने की उम्मीद है जिसमें करीब डेढ़ से दो साल तक का समय लग सकता है। हालांकि 50% अन्य मामलों में आंख की रोशनी वापस आने की उम्मीद नहीं है। इस अवसर पर डॉ. सुदर्शन कुमार खोखर, डॉ. राजपाल वोहरा, डॉ नम्रता शर्मा और डॉ मनदीप बजाज मौजूद रहे।
डराने वाले आंकड़े
डॉ. राजपाल वोहरा ने बताया, इस बार दिवाली पर 190 केस सामने आए जो 2024 में 160 केस की तुलना में 19% ज्यादा रहे। आंख की चोटों से घायल 44% मरीज दिल्ली से, जबकि यूपी और हरियाणा से 56% मरीज आए। घायलों में 13-20 साल के युवाओं की संख्या ज्यादा है जिनमें पुरुषों की संख्या महिलाओं से 5 गुना ज्यादा रही। 17% मामलों में दोनों आंखों में चोट थी जिससे स्थायी दृष्टि हानि का खतरा बना हुआ है। 51 % मरीज केवल दिवाली की रात ही बम -पटाखों से घायल हुए।
कार्बाइड से बने घरेलू पटाखे बने मुसीबत
वरिष्ठ नेत्र सर्जन डॉ नम्रता ने बताया, लोग पटाखों को मजा समझते हैं, पर सेकंड भर में रोशनी जिंदगी से चली जाती है। इस बार प्लास्टिक और टिन के पाइप से घर पर बनी कार्बाइड गन सबसे ज्यादा खतरनाक साबित हुई। कार्बाइड पानी से संपर्क में आते ही एसिटिलीन गैस पैदा करता है, जो भयानक विस्फोट करता है। जिससे गन की नली तक फट जाती है और धातु के कण व केमिकल सीधे आंख पर हमला करते हैं। कॉर्निया जल जाता है, सफेद गर्दा जैसा जम जाता है, कई मामलों में स्थायी अंधापन आ जाता है।
चोटों की गंभीरता
44% केस, ओपन ग्लोब इंजरी यानी सीधे सर्जरी की जरूरत वाले थे। बाकी मामलों में रासायनिक जलन, चिंगारी से जलना, धुएं का नुकसान। 25% मरीजों का विजन केवल हाथ की हलचल तक रह गया, यानी आंशिक या स्थायी अंधापन के शिकार हो गए। कई लोग पटाखा फोड़ते रहे और चोट लगने के बाद भी सोचते रहे सुबह दिखा देंगे। वहीं देरी ने नतीजे और खराब किए। डॉक्टर बजाज ने कहा, पटाखों के धमाके में आपकी आंख नहीं बचती, सिर्फ पछतावा बचता है।
पटाखे चलाने की यूनिवर्सल पॉलिसी
डॉ. टंडन ने कहा, दोपहिया वाहन चलाने के लिए हेलमेट की अनिवार्यता जैसा नियम पटाखे चलाने के लिए भी बनाया जाए। ताकि व्यक्ति के जीवन के लिए महत्वपूर्ण आंख की रोशनी को बचाया जा सके। इसके लिए पॉली कार्बोनेट ग्लास (मजबूत चश्मा) पहनना अनिवार्य किया जा सकता है जो पटाखे से निकलने वाली चिंगारी और अन्य नुकसानदायक तत्वों को आंख में पहुंचने से रोकता है। डॉ. खोखर ने कहा, पटाखों को लंबी डंडी या अन्य लंबी वस्तु से जलाने के नियम बनाए जा सकते हैं। साथ ही पटाखा निर्माताओं को पटाखों में विस्फोटक की मात्रा कम करने के निर्देश दिए जा सकते हैं जिससे पटाखों की घातकता में कमी लाई जा सके।
डॉक्टरों की सिफारिशें
अवैध पटाखों पर इंटर-स्टेट मॉनिटरिंग हो, कार्बाइड वाले घर में बने पटाखों पर त्वरित रोक लगे और स्कूलों में जागरूकता अभियान चलाए जाएं। दिल्ली में प्रतिबंध भले ही कठोर थे, लेकिन यूपी व हरियाणा में पटाखों की खुलेआम बिक्री होती रही। जो पटाखे दिल्ली में नहीं बिकने थे, वही ट्रकों और छोटे वाहनों से इधर सप्लाई किए गए। नतीजतन नियम कागज पर, पटाखे सड़कों पर और मरीज अस्पतालों में पहुंच गए।
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