दिल्ली

सरकार और अदालत हमारी भी सुनें, किसानों से औने-पौने दामों पर जमीनें अब भी छीने जा रही है

सरकार और अदालत हमारी भी सुनें, किसानों से औने-पौने दामों पर जमीनें अब भी छीने जा रही है

रिपोर्ट: हेमंत कुमार

किसानों डकसानों से औने-पौने दामों पर जमीनें छीनकर, बिल्डरों और उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने की घटनाएं कोई नई बात नहीं हैं। इसका एक लंबा इतिहास है। यदि 2011 के भट्टा-पारसौल आंदोलन को देखें, तो यह इसी कारण हुआ था। किसानों की जीविका का जरिया रही जमीनें, सरकार और नौकरशाहों ने योजनाबद्ध विकास के नाम पर छीनकर अपने चहेते बिल्डरों और उद्योगपतियों को दे दीं। इसके खिलाफ भट्टा-पारसौल के किसानों ने जोरदार विरोध किया, लेकिन सरकार ने इस आंदोलन को बर्बर तरीके से कुचलने का प्रयास किया। आंदोलनकारी किसानों पर कई मुकदमे दर्ज किए गए, और वे आज भी उस अन्याय को याद करके कराहते हैं।

भू-अधिग्रहण का दंश
भट्टा-पारसौल में 800 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से किसानों की जमीनें ली गईं। 1894 के पुराने भू-अधिग्रहण कानून का उपयोग करते हुए बिना किसानों को पर्याप्त मौका दिए, उनकी जमीनें हड़प ली गईं। इसके बाद इन जमीनों से उद्योगपतियों और बिल्डरों के लिए लाभ का नया जरिया बनाया गया। इस अन्याय के खिलाफ देश भर में आंदोलनों का सिलसिला शुरू हुआ, जिससे भू-अधिग्रहण कानून 2013 अस्तित्व में आया।

2013 के नए कानून के अनुसार, धारा 24 के तहत जिन किसानों की जमीनों पर अब तक कब्जा नहीं हुआ था, उन्हें इस कानून के लाभ मिलने थे। लेकिन 2014 में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए इस कानून की प्रावधानों को कमजोर करने का प्रयास किया। देश भर के किसानों ने इसका विरोध किया, जिससे सरकार को यह अध्यादेश वापस लेना पड़ा।

कानून का उद्देश्य और विफलता
नए कानून का उद्देश्य था कि पुराने कानून के तहत अनावश्यक भूमि अधिग्रहण पर रोक लगे और किसानों को उनकी जमीन का सही मुआवजा मिले। लेकिन 2014 के बाद से ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया, जिसमें किसानों को धारा 24 का लाभ मिला हो।

भट्टा-पारसौल आंदोलन के दौरान जिन किसानों ने अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष किया, आज वे पूछ रहे हैं कि उस आंदोलन का क्या फायदा हुआ? पूंजीपतियों और नौकरशाहों की साठगांठ ने न्यायपालिका को भी गुमराह किया, जिससे नए कानून के लाभ किसानों तक नहीं पहुंच सके।

न्याय और विकास की दोहरी मार
1894 के कानून के तहत सबसे ज्यादा जमीनें गौतम बुद्ध नगर जिले में अधिग्रहित की गईं। कई अदालतों ने 2011 से 2015 के बीच पुराने कानून के दुरुपयोग को अवैध माना, लेकिन समय के साथ इन फैसलों का लाभ भी किसानों को नहीं मिला।

सरकार विकास के नाम पर जमीनें तो ले रही है, लेकिन न तो बाजार मूल्य के अनुसार मुआवजा दे रही है, न ही किसानों के भविष्य को सुरक्षित करने के उपाय कर रही है। आवाज उठाने पर दमन किया जा रहा है, और गरीब किसान महंगी कानूनी लड़ाई लड़ने में असमर्थ होकर हताश हो चुके हैं।

मीडिया से अपील
हमारा उद्देश्य है कि मीडिया हमारे संघर्ष और आवाज को सरकार और न्यायालय तक पहुंचाए, ताकि हमारे अस्तित्व को बचाया जा सके।

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