उत्तर प्रदेश

मानव अधिकार नहीं मानव कर्तव्य है कृतज्ञता का मूल – प्रो. एस रिनपोछे

मानव अधिकार नहीं मानव कर्तव्य है कृतज्ञता का मूल – प्रो. एस रिनपोछे

रिपोर्ट: रवि डालमिया

केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान सारनाथ के अतिश सभागार में “समाज में कृतज्ञता का महत्व” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए निर्वासित तिब्बत सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री एवं बौद्ध शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान एवं संस्थान के संस्थापक, पूर्व कुलपति प्रोफेसर एस रिनपोछे ने कहा कि जिसे हमारा अस्तित्व बना है उनके उपकार के प्रति हम कैसे श्रणी होते हैं उसकी चित्तउत्पाद करना ही कृतज्ञता का भाव है। समाज में समता की भावना मातृ ज्ञान की भावना बुद्ध चित्त की भावना ही कृतज्ञता का भाव है। शत्रु,मित्र,अनजान तीनों का स्वभाव प्राकृतिक रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है। कुछ घटनाओं के आधार पर हुआ है, इसलिए इन सब के प्रति समता की भावना उत्पन्न नहीं होगी तब तक कृतज्ञता का भाव हमारे भीतर उत्पन्न सकेगा, इसकी संभावना कम होती है। उन्होंने कहा कि कृतज्ञता का अर्थ है अच्छाई की पुष्टि करना। अच्छाई के स्रोत हमारे बाहर विद्यमान है।परम पावन दलाई लामा ने कहा कि “खुश रहने के लिए सबसे पहले हमारे भीतर आंतरिक संतुष्टि होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि संपूर्ण मानव के प्रति कृतज्ञता की भावना न होने के कारण जो चुनौतियां हमारे समक्ष हैं उसमें सबसे ज्यादा पर्यावरण प्रदूषण,पृथ्वी का गर्म होना, हिंसा में वृद्धि, आपसी संघर्ष, आतंकवाद की चुनौती, अमीर-गरीब के बीच खाई होना है।इन सबका मूल कारण मनुष्य के व्यवहार के कुछ बुनियादी परिवर्तन जो परंपरा में हमारे भीतर थे लेकिन आज वे समाप्त हो गए हैं। परंपरा में व्यक्ति और समाज में से समाज को ज्यादा महत्व दिया जाता था। समाज एवं व्यक्ति में समता थी। स्व एवं पर में, शरीर एवं मन में समता की भावना थी।शरीर से ज्यादा मन पर जोर दिया जाता था। उन्होंने कहा है की परंपरा में हमारे अधिकार एवं कर्तव्य में समता की भावना थी।आज संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों में मानव अधिकार की सार्वभौमिक घोषणा तो है पर मानव कर्तव्य की कोई घोषणा नहीं है। मनुष्य परंपरा में प्रकृति के संसाधनों को समयानुसार उपयोग करता था परंतु आधुनिक जीवन पद्धति में उपयोगकर्ता के रूप में नहीं उपभोग कर्ता के रूप में रख दिया है। उपभोग कर्ता के रूप में किसी के प्रति कृतज्ञता उत्पन्न करना कठिन हो गया है।आज हिंसा एवं युद्ध एक व्यापार बना दिया गया है।आज मनुष्यों में दायित्व बोध का भाव समाप्त होता जा रहा है। इस भावना को जब तक पुनर्स्थापित नहीं किया जाएगा तब तक समता की न्याय की स्थापना करना कठिन हो गया है।

संस्थान की कुलपति प्रोफेसर वांगछुक दोर्जे नेगी ने कहा कि आज जहां दुनिया में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली कहावत चरितार्थ हो रही है, वहां की कृतज्ञता जैसे विषय पर चिंतन करना बहुत जरूरी हो गया है। उन्होंने कहा कि हम जैसे भाव उत्पन्न करते हैं हमारा स्वभाव व चित्त भी वैसा ही होता है। अतः हमें सदा दूसरों के प्रति कृतज्ञ का भाव होना चाहिए। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए संस्थान की कुल सचिव डॉक्टर सुनीता चंद्रा ने कहा कि कृतज्ञता के द्वारा समाज में समरसता का भाव उत्पन्न किया जा सकता है। कार्यक्रम के प्रारंभ में संस्कृत एवं भोटि भाषा में मंगलाचरण किया गया। कार्यक्रम की संयोजक डीआर शुचिता शर्मा ने स्वागत संबोधन तथा विषय परिवर्तन डॉक्टर एके राय ने एवं संचालन डॉक्टर अनुराग त्रिपाठी ने किया। इस अवसर अनेक स्थानों से आए बौद्ध भिक्षुगण, संस्थान के उपकुल सचिव डॉ.हिमांशु पांडे, प्रो. यूं सी सिंह, श्री राजेश कुमार मिश्र, डॉ सुशील कुमार सिंह, डॉ.प्रशांत मौर्य, डॉ. उमाशंकर,डॉ रवि रंजन द्विवेदी सहित सैकड़ो की संख्या में छात्राएं उपस्थित रहे।

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