
नई दिल्ली, 13 सितम्बर : अगर किसी व्यक्ति को ऐसी चीजें और आवाजें दिखती या सुनाई देती हैं जो दूसरों को दिखाई व सुनाई नहीं देती हैं। या व्यक्ति की बोली, सोच और भावनाओं में बदलाव आने की वजह से उसके सामाजिक संपर्क और अन्य रोजमर्रा की गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं तो उसे ‘झाड़फूंक’ की नहीं मनोचिकित्सकीय उपचार की जरुरत है।
यह जानकारी डीयू के राजकुमारी अमृत कौर नर्सिंग महाविद्यालय की ओर से आरएमएल अस्पताल के मुख्य ओपीडी भवन में आयोजित ‘सिजोफ्रेनिया’ जागरूकता कार्यक्रम के दौरान उपस्थित लोगों को दी गई। इस दौरान मनोचिकित्सा विभाग की अध्यक्ष डॉ मिताली बिस्वास ने बताया कि उक्त सभी लक्षण ‘सिजोफ्रेनिया’ रोग के हैं जिसे नियमित चिकित्सकीय उपचार के जरिये नियंत्रित किया जा सकता है। इस अवसर पर प्रधानाचार्या डॉ डेजी थॉमस और अनुशिक्षक ज्योति सिंह प्रमुख रूप से मौजूद रहे। इस अवसर पर नर्सिंग छात्राओं ने एक नाटक के जरिये सिजोफ्रेनिया के लक्षण के साथ परीक्षण और उपचार के बाबत जानकारी भी प्रदान की।
उन्होंने कहा कि शिक्षा और सहायता के माध्यम से हम सिजोफ्रेनिया से प्रभावित लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं और एक ऐसे भविष्य की दिशा में काम कर सकते हैं जहां मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों को समझने के साथ प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जा सके। वहीं, ज्योति सिंह ने बताया कि सिजोफ्रेनिया से पीड़ित मरीज अक्सर भ्रम, मतिभ्रम, अव्यवस्थित भाषण और बिगड़ा हुआ कामकाज जैसे लक्षणों से पहचाना जाता है। इस वजह से वह आत्महत्या की ओर प्रवृत होने लगता है।
उन्होंने बताया कि सिजोफ्रेनिया में मरीज के विचार या अनुभव ऐसे हो जाते हैं जिनका वास्तविकता या सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता है। इस बीमारी का उपचार संभव है लेकिन अधिकांश लोग चिकित्सकीय इलाज कराने की बजाय झाड़फूंक, मुल्ला, मौलवी और बाबा के चक्कर में पड़ जाते हैं जिसके चलते बीमारी सामान्य से गंभीर स्तर पर पहुंच जाती है। इसका आधुनिक और नियमित इलाज जरुरी है। ऐसे में मरीज को अपनी मर्जी से दवा का सेवन बंद नहीं करना चाहिए और डॉक्टर की सलाह के बाद ही दवा छोड़ने के विकल्प पर अमल करना चाहिए।
वंशानुगत लेकिन प्रत्येक आयु वर्ग गिरफ्त में
यह रोग ज्यादातर वंशानुगत होता है लेकिन किसी भी आयु वर्ग को अपनी गिरफ्त में ले सकता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसे एक सामाजिक धब्बे के रूप में देखा जाता है जिसके चलते पीड़ित को नौकरी व शादी ब्याह करने में दिक्कत आती है।हालांकि, भारत में हर साल ऐसे 10 लाख मामले सामने आते हैं जिसमें अधिकांश पीड़ित किशोरावस्था के अंत या वयस्कता की शुरुआत से गुजर रहे होते हैं।