
नई दिल्ली, 18 फरवरी : देश भर में एंटी-बायोटिक दवाओं के खिलाफ मुहिम जारी है, जिसके तहत डॉक्टरों को कम से कम एंटी-बायोटिक लिखने पर जोर दिया जा रहा है। इसी मुहिम के तहत दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय (डीडीयू) अस्पताल को बड़ी सफलता मिली है। जिसके तहत अस्पताल में एंटी बायोटिक दवाओं के सेवन व परामर्श के मामलों में 90 फीसदी कमी दर्ज हुई है।
दरअसल, बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमणों से लड़ने के लिए मरीजों को अक्सर एंटी-बायोटिक दवाएं दी जाती हैं, जो भारतीय समाज में सामान्य बात है। लेकिन इनके अत्यधिक सेवन से मरीज के शरीर में एंटी माइक्रोबियल (एएमआर) या रोगाणुरोधी प्रतिरोध पैदा हो सकता है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद गंभीर है। इस संबंध में डीडीयू अस्पताल के डॉक्टरों ने विभिन्न वार्डों में भर्ती मरीजों के साथ ओपीडी में इलाज कराने वाले मरीजों को गोलियों, मलहम, तरल पदार्थ या इंजेक्शन के रूप में उपलब्ध एंटी बायोटिक दवाएं देना कम कर दिया है। इस बात की तस्दीक अस्पताल के डॉक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन पेपर की रेंडम जांच से हुई है। जिसमें 90 प्रतिशत मामलों में मरीजों को एंटी बायोटिक दवाएं नहीं लिखी गई थी।
डीडीयू अस्पताल के मेडिकल डॉयरेक्टर डॉ बीएल चौधरी ने कहा कि एंटी बायोटिक दवाओं के बार-बार सेवन से व्यक्ति का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। यहां तक कि उसका शरीर संक्रमण से लड़ने में असमर्थ हो जाता है। बैक्टीरिया और कवक जैसे सूक्ष्म जीवों में ऐसे बदलाव (उत्परिवर्तन) आ जाते हैं जो उन्हें सामान्य दवाओं से बचने में मदद करते हैं। ऐसे में इलाज कठिन हो जाता है और रोग फैलने, गंभीर बीमारी होने और मृत्यु होने तक का खतरा बढ़ जाता है। इस स्थिति में मरीज को हैवी डोज वाली दवाएं लेनी पड़ती हैं, जो अक्सर विदेशी और महंगी होती हैं।
अस्पताल संक्रमण में आई कमी
डॉ चौधरी ने बताया कि अस्पताल में भर्ती मरीजों में नोसोकोमियल संक्रमण का प्रसार रोकने के लिए, अस्पताल के सभी कर्मचारियों (डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ) का टीकाकरण किया गया है। ये वो संक्रमण हैं जो चिकित्सा या शल्य चिकित्सा प्रक्रिया के बाद हो सकते हैं। ये हल्के या जानलेवा हो सकते हैं। इस संबंध में अस्पताल संक्रमण नियंत्रण समिति (एचआईसीसी) का महत्वपूर्ण रोल है जो संक्रमण से बचाव के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को सख्ती से लागू करती है। इस कमेटी ने वैज्ञानिक मूल्यांकन करने के बाद पाया कि सर्जरी विभाग के सर्जिकल वार्ड में संक्रमण के 5% और बाल चिकित्सा विभाग के एन -आईसीयू में 9% मामले हैं। यह डब्ल्यूएचओ द्वारा विकसित देशों के लिए निर्धारित 10% और विकासशील देशों के लिए 7% के हिसाब से बेहतर स्थिति हैं। हालांकि, नियोनेटल आईसीयू में 2% सुधार की जरूरत है।
कब होता है एंटी माइक्रोबियल
रोगाणुरोधी प्रतिरोध या एंटी माइक्रोबियल (एएमआर) तब होता है जब बैक्टीरिया, वायरस, कवक और परजीवी समय के साथ बदल जाते हैं और दवाओं के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते हैं, जिससे संक्रमण का इलाज कठिन हो जाता है और रोग फैलने, गंभीर बीमारी होने और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है। बैक्टीरिया के कारण होने वाले संक्रमणों का इलाज करने वाली दवाओं को एंटीबायोटिक दवा कहा जाता है। ये बैक्टीरिया को मारती हैं या उन्हें प्रजनन करने से रोकती हैं। हालांकि, एंटीबायोटिक्स हर बीमारी का इलाज नहीं करतीं। अगर एंटीबायोटिक को सही तरीके से नहीं लिया जाता, तो कुछ बैक्टीरिया जीवित रहते हैं और दवाओं के असर के लिए प्रतिरोध विकसित कर सकते हैं, इनमें पेनिसिलिन (एमोक्सिसिलिन) डॉक्सीसाइक्लिन शामिल है।
दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर रहे हैं रोगाणु
आईसीएमआर के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में रोगाणु एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति लगातार प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर रहे हैं। जिससे एंटीबायोटिक रोगाणुओं पर बेअसर साबित हो रहे हैं और संक्रमण के इलाज में कठिनाई आ रही है। यहां तक कि रोग के प्रसार एवं मृत्यु का खतरा बढ़ सकता है। अध्ययन में ब्लडस्ट्रीम इंफेक्शन (बीएसआई) के लिए क्लेबसिएला निमोनिया और एसिनेटोबेक्टर बाउमानी रोगाणु जिम्मेदार पाए गए हैं। यह अस्पताल में होने वाला यह सबसे आम संक्रमण है। इसके अलावा दो अन्य रोगाणु स्टैफिलोकोकस आरियस और एंटरोकोकस फेसियम क्रमश एंटीबायोटिक दवाओं आक्सासिलिन और वैनकोमाइसिन के प्रति प्रतिरोधी पाए गए हैं।
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