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New Delhi : वोट, जाति और टूटी हुई वादे, बिहार के भविष्य की लड़ाई

New Delhi (डॉ. अनिल सिंह, संपादक STAR Views एवं संपादकीय सलाहकार Top Story; पुस्तक Bihar: Chaos to Chaos (2013) के लेखक) : बिहार एक बार फिर विधानसभा चुनाव के जोश और शोर में प्रवेश कर रहा है। हमेशा की तरह चुनावी मुकाबले को जातीय गणित, गठबंधनों के जोड़-तोड़ और वफादारियों के उतार-चढ़ाव के खेल के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन नारों और भीड़ जुटाने की राजनीति के नीचे एक गहरी और चिंताजनक सच्चाई छिपी हुई है: बिहार आज भी भारत का सबसे पिछड़ा राज्य बना हुआ है, लगभग हर मापदंड पर। यह स्थिति तब भी बनी हुई है जब 1989 में राज्य ने निर्णायक रूप से अगड़ी जाति के मुख्यमंत्रियों से मुंह मोड़ लिया और ओबीसी, ईबीसी तथा दलित पृष्ठभूमि के नेताओं को सत्ता सौंपी। पिछले पैंतीस सालों से जो नेता सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण का दावा करते रहे, उन्होंने सत्ता तो हासिल की, लेकिन जिन समुदायों के नाम पर यह राजनीति चली, उनके जीवन में असली सुधार आज तक दिखाई नहीं देता। जिन वर्गों ने सम्मान और अवसरों की उम्मीद की थी, वे महज राजनीतिक अस्तित्व का साधन बन गए, जबकि राज्य राष्ट्रीय विकास सूचकों के सबसे निचले पायदान पर अटका रह गया।

यह विरोधाभास चौंकाने वाला है। 1989 के बाद से बिहार ने कभी भी अगड़ी जाति के मुख्यमंत्री को सत्ता नहीं सौंपी। लालू प्रसाद यादव मंडल राजनीति और सामाजिक न्याय के नारे पर सत्ता में आए और पिछड़े वर्गों की तकदीर बदलने का वादा किया। उनकी उत्तराधिकारी राबड़ी देवी को भी महिलाओं और वंचितों की सशक्तिकरण की प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया। जीतन राम मांझी, एक दलित, को मुख्यमंत्री बनाकर समावेशिता का संदेश दिया गया। नीतीश कुमार, जो पिछले दशकों में बिहार की राजनीति की सबसे स्थायी शख्सियत बने, ने खुद को विकास पुरुष और पिछड़े नेता दोनों के रूप में स्थापित किया। लेकिन अगर दलितों, महादलितों, ओबीसी और ईबीसी समुदायों के जीवन पर नजर डालें तो स्थिति बहुत अलग है। गरीबी कायम है, साक्षरता का स्तर बेहद नीचे है, बच्चों का पढ़ाई छोड़ना आम है, और लाखों लोग आज भी पलायन को ही जीवन का सहारा मानते हैं। जाति सत्ता पाने का पासपोर्ट बनी लेकिन विकास का रास्ता नहीं। उलटे जातीय नेटवर्क महज संरक्षण की राजनीति तक सिमट गए, जहां फायदे सिर्फ करीबी लोगों और दबंगों तक सीमित रहे और बहुसंख्यक समुदाय खाली हाथ रह गया।

इस जाति-आधारित राजनीति की लंबी पारी का नतीजा यह है कि बिहार नीति आयोग की रैंकिंग में लगातार सबसे नीचे बना हुआ है। स्वास्थ्य क्षेत्र में बिहार का हाल बेहद खराब है—डॉक्टरों की संख्या बेहद कम है, शिशु और मातृ मृत्यु दर सबसे ऊंची है, और सरकारी अस्पतालों में न तो पर्याप्त डॉक्टर हैं और न ही संसाधन। शिक्षा की स्थिति भी कमजोर है—स्कूलों का ढांचा जर्जर है, शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, और बार-बार हुए घोटालों ने राज्य को राष्ट्रीय शर्मिंदगी दी है, चाहे वह टॉपर घोटाला हो या परीक्षा पत्र लीक। उच्च शिक्षा पूरी तरह भ्रष्टाचार और राजनीति से ग्रस्त है। बुनियादी ढांचे में, भले ही नीतीश कुमार के शुरुआती दौर में कुछ सड़कों का विस्तार हुआ हो, लेकिन बिजली, पीने का साफ पानी, जल निकासी और शहरी सुविधाओं की स्थिति अब भी दयनीय है। अर्थव्यवस्था में बिहार भारत की जीडीपी में चार प्रतिशत से भी कम योगदान देता है, जबकि यह देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में से है। औद्योगिकीकरण लगभग न के बराबर है और कृषि बंटवारे और पिछड़ी तकनीक की वजह से बेकार पड़ी है। नतीजतन बिहार का नौजवान, खासकर पिछड़े और दलित वर्गों का, पलायन को मजबूर है—दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात जाकर सस्ते मजदूर या छोटे-मोटे काम करता है।

मेरी 2013 की पुस्तक Bihar: Chaos to Chaos में मैंने विस्तार से उन कारकों पर चर्चा की थी जो बिहार को पिछड़ेपन की दलदल में धकेलते हैं। जाति-आधारित राजनीति की स्थिरता, उद्योग का अभाव, शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश की कमी, और कृषि पर बिना आधुनिकीकरण के अत्यधिक निर्भरता—ये सभी मुद्दे उस समय भी बिहार की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा बने हुए थे। एक दशक बाद भी वे हालात लगभग जस के तस हैं, जो यह दिखाता है कि बिहार कितना गहरे फंसा हुआ है।

आगामी चुनाव विवादों से भी प्रभावित हो रहे हैं जो शासन की थकान और राजनीतिक ध्रुवीकरण दोनों को उजागर करते हैं। जाति जनगणना की मांग राजद और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों का मुख्य हथियार बनी हुई है, जो सामाजिक न्याय की राजनीति को फिर से हवा देना चाहते हैं। भाजपा इसे विकास, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की कथा के जरिए संतुलित करने की कोशिश करती है, लेकिन जमीन पर उसे भी जातीय समीकरण साधने पड़ते हैं। नीतीश कुमार, जिन्हें कभी “सुशासन बाबू” कहा जाता था, आज एक थके हुए नेता की तरह देखे जाते हैं, जिनके लगातार पलटीमार गठबंधन ने जनता को निराश कर दिया है। भ्रष्टाचार, अफसरशाही की नाकामी और शासन का ठहराव लोगों की सोच पर हावी है। कानून-व्यवस्था का डर, जिसे कभी “जंगलराज” कहा गया, फिर से चर्चा में है क्योंकि अपराध बढ़ रहे हैं, कारोबारी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा का बोलबाला है।

सबसे गंभीर मुद्दा बेरोजगारी है। कोविड-19 महामारी ने इस सच्चाई को उजागर किया जब लाखों प्रवासी मजदूर बिना रोजगार और सुरक्षा के बिहार लौट आए। आज भी उनके भेजे गए पैसे ही गांव की अर्थव्यवस्था को संभालते हैं। शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता भी टूट चुकी है। टॉपर घोटाले से लेकर परीक्षा पत्र लीक तक, बिहार का युवा बार-बार ठगा गया है। यही कारण है कि बड़ी संख्या में छात्र कोटा, दिल्ली और पटना जैसे कोचिंग हब की ओर पलायन करते हैं। स्वास्थ्य संकट बार-बार शासन की पोल खोलता है—मुजफ्फरपुर और अन्य जगहों पर दिमागी बुखार से बच्चों की मौत होती रहती है, और सरकारी अस्पताल लाचार दिखते हैं। बाढ़ हर साल बिहार को तबाह करती है, खासकर कोसी क्षेत्र को, लेकिन स्थायी समाधान अब तक नहीं निकाला गया।

केंद्र-राज्य संबंधों का विवाद भी जारी है। बिहार लंबे समय से “विशेष राज्य का दर्जा” मांग रहा है, लेकिन अब तक कोई सरकार इसे हासिल नहीं कर पाई। विपक्ष केंद्र पर जानबूझकर उपेक्षा का आरोप लगाता है, वहीं केंद्र बिहार की भ्रष्ट राजनीति और नाकामी को बड़ा कारण बताता है। नतीजा यह है कि आम जनता बीच में पिस जाती है और विकास राजनीतिक दांवपेंच का मोहरा बनकर रह जाता है।

ऐसे हालात में विधानसभा चुनाव सिर्फ पटना की सत्ता पर किसका कब्जा होगा, यह सवाल नहीं है, बल्कि यह इस बात की परीक्षा है कि क्या बिहार इस दुष्चक्र से बाहर निकल सकता है। बहुत लंबे समय तक नेताओं ने जाति पहचान को सत्ता पाने का जरिया बनाया, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे नौकरियां, स्कूल, अस्पताल, सड़कें, उद्योग और बाढ़ प्रबंधन जैसी बुनियादी चीजें देने में नाकाम रहे। बिहार अब महज प्रतिनिधित्व की राजनीति में कैद नहीं रह सकता। उसे पहचान से परिणाम, जाति गर्व से शिक्षा क्रांति, और प्रतीकवाद से औद्योगिक गलियारों की ओर बढ़ना होगा। राज्य को कृषि आधारित उद्योगों, लघु और मध्यम उद्यमों तथा आधुनिक कौशल केंद्रों में निवेश चाहिए। औद्योगिक पुनर्जागरण के बिना बिहार पलायन की धरती बना रहेगा। शिक्षा को घोटालों और औसतपन से निकालकर अध्यापकों की जवाबदेही तय करनी होगी, विश्वविद्यालयों को राजनीति से मुक्त करना होगा और आधुनिक उत्कृष्टता केंद्र बनाने होंगे। स्वास्थ्य क्षेत्र को नए मेडिकल कॉलेज, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र और डिजिटल हेल्थ मिशनों से मजबूत करना होगा। बाढ़ प्रबंधन को अस्थायी राहत शिविरों से निकालकर स्थायी तटबंधों, बांधों और पुनर्वास योजनाओं पर ले जाना होगा।

सबसे ज़रूरी है राजनीतिक स्थिरता और दीर्घकालिक दृष्टि। बार-बार के गठबंधन बदलाव, अवसरवादी समझौते और नेताओं के अस्तित्व की राजनीति ने जनता का भरोसा खो दिया है। सुशासन की स्थिरता meaningful विकास की पहली शर्त है। सामाजिक न्याय महज जातीय लेबल नहीं होना चाहिए; यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य तक पहुंच, रोजगार के अवसर और सम्मानजनक जीवन के रूप में सशक्तिकरण होना चाहिए। प्रतिनिधित्व बिना परिणाम ने पहले ही पैंतीस साल बर्बाद कर दिए हैं। अगले दशक को उसी तरह बर्बाद नहीं किया जा सकता।

बिहार का भविष्य सिर्फ बिहार का मसला नहीं है। केंद्र के लिए बिहार भारत की सबसे बड़ी विकास चुनौतियों में से है। इतनी बड़ी आबादी और गहरी गरीबी के साथ बिहार राष्ट्रीय औसत को हर सामाजिक सूचक में नीचे खींचता है। अगर भारत को सच्चा समावेशी विकास हासिल करना है, तो बिहार को उठाना होगा—यह दान नहीं बल्कि राष्ट्रीय प्रगति की आवश्यकता है। बिहार के पास क्षमता है: उपजाऊ जमीन, जुझारू लोग, सांस्कृतिक समृद्धि और युवा आबादी। जो कमी है वह है राजनीतिक इच्छाशक्ति—टूटे वादों और अल्पकालिक अस्तित्व की राजनीति से निकलने की।

जब बिहार फिर मतदान करेगा, तो विकल्प साफ है। क्या मतदाता एक बार फिर जातीय गणित और प्रतीकात्मक नारों से प्रभावित होगा या असली बदलाव की मांग करेगा? क्या नेता ऐसी नीतियां लाएंगे जो जीवन बदलेंगी या एक बार फिर जाति को सत्ता की सीढ़ी बनाकर विकास को बलि चढ़ा देंगे? बिहार की जनता महज अस्तित्व की राजनीति नहीं, बल्कि बदलाव, गरिमा और अवसर की हकदार है। विधानसभा चुनाव महज सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य की लड़ाई है।

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