
New Delhi : पटना में 1 सितंबर 2025 को समाप्त हुई राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा” प्रतीकात्मक भी थी और रणनीतिक भी—एक ऐसा राजनीतिक आयोजन जिसने अतीत को वर्तमान से, और आकांक्षा को सत्ता से जोड़ने की कोशिश की। “गांधी से आंबेडकर” नामक यह पदयात्रा महात्मा गांधी की नैतिक सत्ता और डॉ. भीमराव आंबेडकर की संवैधानिक दृष्टि को जोड़ने का प्रयास थी। गांधी मैदान में पुष्पांजलि से शुरू होकर आंबेडकर स्मारक पर समाप्त हुई यह यात्रा इस बात का ऐलान थी कि कांग्रेस और उसके सहयोगी स्वयं को लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक न्याय के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं—खासकर उस राज्य में जहाँ परिवर्तन की बेचैनी हमेशा गहरी रही है।
यह महज़ एक रैली नहीं थी; यह उस ऐतिहासिक जंग की घोषणा थी जिसका सामना अब बिहार का जमे-जमाए राजनीतिक ढाँचा करने जा रहा है।
प्रतीकात्मक मार्ग: स्वराज से सामाजिक न्याय तक
यात्रा का चुना गया मार्ग अपने आप में राजनीतिक कथा था। गांधी मैदान स्वतंत्रता और नैतिक आवाज़ का प्रतीक है, जबकि आंबेडकर पार्क अधिकारों और न्याय का। गांधी मैदान से लेकर एस.पी. वर्मा रोड, डाकबंगला चौक, कोतवाली थाना, इनकम टैक्स चौक होते हुए आंबेडकर पार्क तक की यह यात्रा एक संदेश थी—गांधी के स्वराज से आंबेडकर के सामाजिक न्याय तक का।
गांधी की वैचारिक विरासत और आंबेडकर की न्यायपरक दृष्टि को मिलाकर राहुल गांधी ने विभिन्न जातीय वर्गों को संबोधित करने की कोशिश की—गांधी का नाम उच्च जातियों के लिए नैतिक पहचान का आधार है, वहीं आंबेडकर का नाम दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए सशक्तिकरण का।
सत्ता-विरोध का संकेंद्रण
इस यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि उसने सत्ता-विरोधी माहौल को एक जगह केंद्रित कर दिया। पहले जो असंतोष बिखरा हुआ था, वह अब संगठित राजनीतिक मूड में बदलता दिख रहा है। पटना की रैली में ऊर्जा स्पष्ट थी—भीड़ दर्शक नहीं, भागीदार बनकर आई थी।
कभी “सुशासन बाबू” कहे जाने वाले नीतीश कुमार अब थकान और अवसरवाद की छवि से घिर चुके हैं। बार-बार की राजनीतिक कलाबाज़ियाँ—बीजेपी से आरजेडी और फिर वापस बीजेपी—ने मतदाताओं के मन में गहरी नाराज़गी पैदा की है। इस यात्रा ने उस आक्रोश को आवाज़ दी, राहुल गांधी को उत्प्रेरक और तेजस्वी यादव को विपक्ष का उत्तराधिकारी चेहरा बनाकर प्रस्तुत किया।
आरजेडी की केंद्रीयता और इंडिया ब्लॉक का संदेश
यात्रा का एक स्पष्ट निष्कर्ष यह भी रहा कि बिहार के विपक्ष का केंद्र अब आरजेडी ही है। राहुल गांधी की मौजूदगी ने तेजस्वी यादव को विपक्ष के ध्रुव के रूप में स्थापित कर दिया। कांग्रेस, जो बिहार में चुनावी दृष्टि से कमजोर है, ने अपने को उत्प्रेरक की भूमिका में रखा—राष्ट्रीय स्तर का ध्यान खींचा, नागरिक समाज को जोड़ा और आरजेडी के संदेश को तेज किया।
इंडिया ब्लॉक का संदेश साफ था—सभी एंटी-बीजेपी और एंटी-जे़डीयू वोटों का एकीकरण। राहुल गांधी लगातार तीन मुद्दों पर जोर देते रहे: मताधिकार, सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय। यह त्रयी युवाओं और हाशिए पर खड़े तबकों के बीच गहराई से गूँजती रही।
आरजेडी और कांग्रेस का गठजोड़ अब मजबूरी नहीं बल्कि स्वाभाविक साझेदारी की तरह दिखने लगा है—एक के पास जमीनी ताक़त है, दूसरे के पास राष्ट्रीय पहचान।
द्विध्रुवीय मुकाबले की स्पष्टता
यात्रा ने बिहार की चुनावी तस्वीर को साफ कर दिया है। राज्य अब त्रिकोणीय संघर्ष की ओर नहीं, बल्कि द्विध्रुवीय मुकाबले की ओर बढ़ रहा है—बीजेपी-एनडीए बनाम आरजेडी-इंडिया ब्लॉक।
कभी बिहार की राजनीति का केंद्र रहे नीतीश कुमार का जे़डीयू अब हाशिए पर जाने का ख़तरा झेल रहा है। रैली में गूँजे नारे और नाराज़गी स्पष्ट संकेत थे—लोग नीतीश से ऊबे हुए हैं और बदलाव चाहते हैं।
बीजेपी के पास संगठनात्मक ताक़त अब भी है, मगर वह नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता पर अत्यधिक निर्भर है। भाजपा की रणनीति संभव है कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा ले, परन्तु बिहार की ज़मीनी राजनीति में बेरोज़गारी, आर्थिक ठहराव और शासन से मोहभंग कहीं अधिक निर्णायक कारक बन चुके हैं।
राहुल गांधी की भूमिका: उत्प्रेरक से जन-नेता तक
अक्सर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि राहुल गांधी राजनीति में असंगत हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन “वोटर अधिकार यात्रा” ने एक अलग राहुल गांधी को सामने रखा—लगातार सक्रिय, ज़मीनी और केंद्रित। गांधी और आंबेडकर दोनों की विरासत को जोड़कर तथा लोकतंत्र और सामाजिक अधिकारों पर ज़ोर देकर उन्होंने खुद को सिर्फ़ कांग्रेस नेता के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विपक्ष की आवाज़ के रूप में प्रस्तुत किया।
यह यात्रा तमाशा नहीं बल्कि कार्यक्रम थी—पदयात्रा, सभाएँ, नागरिक संवाद और अब यह निष्कर्षात्मक मार्च। राहुल गांधी बिहार की राजनीति में अब बाहरी नहीं, साझीदार दिख रहे हैं।
भविष्य की दिशा: दीवाली के बाद का चुनाव
दीवाली के बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव इस यात्रा की छाया में होंगे। मताधिकार, सामाजिक न्याय और सत्ता-विरोध जैसे मुद्दे केंद्र में रहेंगे।
बीजेपी-जे़डीयू गठबंधन के सामने चुनौती भारी है। नीतीश कुमार की विकासपरक उपलब्धियों—सड़क, बिजली, कानून व्यवस्था—को अब ठहराव, भ्रष्टाचार और अवसरवाद की कहानियों से चुनौती मिल रही है। विपक्ष के सामने चुनौती है—गति बनाए रखना और छोटे वोट-कटवा दलों (जैसे प्रशांत किशोर का “जन सुराज”) से सतर्क रहना।
निष्कर्ष: बदलाव की प्रस्तावना
“वोटर अधिकार यात्रा” समाप्त हो चुकी है, पर उसकी गूँज बिहार की गलियों में लंबे समय तक सुनाई देगी। इसका सार यही है कि गांधी की नैतिक पुकार और आंबेडकर की अधिकारपरक दृष्टि को मिलाकर 2025 के चुनाव में एक नई विपक्षी लामबंदी खड़ी की जाए।
गांधी मैदान से आंबेडकर पार्क तक यह यात्रा महज़ पुष्पांजलि नहीं बल्कि परिवर्तन की आकांक्षाओं को लेकर चली। राहुल गांधी की मौजूदगी ने तेजस्वी यादव की नेतृत्वकारी भूमिका को मजबूत किया और दोनों ने मिलकर उस माहौल को जन्म दिया जिसे अब बिहार के निर्णायक चुनाव तक बनाए रखना होगा।
वर्तमान परिस्थिति स्पष्ट है—सत्ता-विरोध मज़बूत हो चुका है, जे़डीयू ढलान पर है, बीजेपी असमंजस में है और आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन नए आत्मविश्वास से आगे बढ़ रहा है।
पटना का यह समापन मार्च एक आयोजन भर नहीं था—यह बिहार के उत्तर-नीतीश राजनीतिक युग की प्रस्तावना थी। यदि यह गति बनी रही तो 2025 के चुनाव सत्ता-परिवर्तन ही नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक कल्पना को नया आकार देंगे।
📌 डॉ. अनिल कुमार सिंह
संपादक – STAR Views एवं संपादकीय सलाहकार – Top Story
लेखक, “The Prime Minister: Discourses in Indian Polity” (2025)